हम बदले, जमाना बदला, पर 'मां' नहीं

Twitter : @todayamit11

क्या आप अपने बचपन को फिर से जी सकते हैं? इसका जवाब किसी से भी पूछा जाए, उत्तर 'न' ही होगा। होना भी चाहिए, क्यों कि गुजरा वक्त और गुजरे लम्हें कभी वापस लौटकर नहीं आते हैं।

यह यथार्थ है। इसकी कोई टोह(गहराई) नहीं, पर दुनिया में हमारे बिल्कुल पास एक ऐसा शख्स मौजूद है जो इस लम्हें को फिर से जी सकता है। वो है 'मां'।

दरअसल, हर मां का सपना होता है। उसके बच्चे जिंदगी में वो मुकाम हासिल कर पाएं जो किसी न किसी वजह से वो नहीं छू सकी। इसलिए वह दर्पण की तरह उनमें खुद को देखती है।

वह अपने बच्चों में अपना बचपन ढूंढती है। बचपन में बच्चे 'मां' की परछाईं की तरह होते हैं। 'मां' जहां जाती है बच्चे वहां जाते हैं और जब यह बच्चे बड़े हो जाते हैं तो जहां बच्चे जाते हैं, वहां 'मां' नहीं जा पाती, पर उसका आशीर्वाद और विश्वास कि मेरा बच्चा मेरा साथ जरूर देगा हमेशा उसके (मां) के साथ रहता है।

 शब्द की महिमा का गुणगान जितना किया जाए उतना ही कम है। यह अनंत है, असीम है, निराकार है। यही कारण है कि जब ईश्वर ने इस मृत्युलोक में जन्म लिया तो वह भी मां का प्यारा बेटा बनकर ही अवतरित हुआ।
बच्चे कहीं भी हो, पर मां उसके हर दुःख दर्द को एक अनजाने अहसास से महसूस कर लेती है। एक मां ही है जिसकी जगह तीनों लोक में कोई नहीं ले सकता।

इतिहास गवाह है कि हर महान व्यक्ति के पीछे मां का अहम योगदान रहा है, फिर चाहे वह वीर शिवाजी की 'मां जीजाबाई' हों या मेवाड़ राज्य की स्वामिभक्त 'मां पन्ना धाय' जिन्होंने अपने लाल का बलिदान देकर चित्तौड़ के राजकुमार की हत्या होने से बचा लिया था।


समय बदला। लोग बदले। विचार बदले। मां का बच्चों के प्रति रवैया भी बदला। नहीं बदला तो बस 'मां का स्नेह' जो वह अपने बच्चे से करती है। मां का बच्चा कैसा भी हो, कुरूप हो, सुंदर हो या फिर किसी मानसिक या शारीरिक बीमारी से ग्रस्त हो। 'मां' उसे अपने स्नेह की छांव में बड़ा करती है और ताउम्र उसकी ही चिंता में अपना अनमोल जीवन समर्पित कर देती है।

बहरहाल, अब आज की पीढ़ी की बात करते हैं। क्या हम अपने माता-पिता को वक्त दे पा रहे हैं? क्या हम पैसे के पीछे इतने भाग रहे हैं कि अपनों को बहुत दूर छोड़ चुके हैं? क्या हम उस मां को अनदेखा कर रहे हैं जो हमारे बचपन में हमारे रोने पर भावों को पढ़ लिया करती थी। हम बोल नहीं पाते पर वो समझ जाती थी।

क्या हम उस 'मां' को भूल रहे हैं जो लोरियों और कहानियों के जरिए हमें एक सफल और अच्छा इंसान बनने की नेक सलाह दिया करती थी? और आज जब हम वह मुकाम हासिल कर चुके हैं, तो क्या हम उस 'मां' को वो स्थान दे पा रहे हैं? भले ही हम हजारों मील दूर बैठकर हजारों-लाखों रुपए कमा लें, वह किस काम के?

अगर मां के पास बैठकर बस इतना ही कह दें कि 'मां मैं अब लौट आया हूं और तुम्हारे हर सुख-दुःख में साथ रहूंगा। उनके लिए इससे बड़ी पूंजी और क्या होगी। क्यों कि माता-पिता की असली पूंजी उनके बच्चे ही होते हैं। अगर मां इस दुनिया से अलविदा कह जाए, तब बड़ा ही दुःखद होगा वह दिन।

हम अफसोस भी नहीं कर सकेंगे कि हम मां के साथ दो पल भी न बिता पाए। इसलिए 'मां' शब्द की गरिमा के साथ उनकी अहमियत भी समझें।

'मां' कैसी भी हो 'मां' हमेशा 'मां' ही रहती है। वह चाहती है कि उसके बच्चे कामयाबी की राह पर आगे बढ़ें, लेकिन ये 'मां' ही है जिसने अपने बच्चों को आगे बढ़ाया, बल्कि इतनी ऊंचाई पर पहुंचा दिया कि आज जमाना उनके कदम चूमता है।

हमारे धर्मग्रंथों में भी मां और जन्मभूमि को स्वर्ग से बढ़कर माना गया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह जीवन में आधुनिकीकरण का समावेश धीरे-धीरे बढ़ रहा है।

वहां मां की ममता ठीक वैसी ही है जैसी सदियों पहले थी। परिवर्तन हर जगह आया। लोगों की सोच पहले से और भी ज्यादा प्रभावशाली हुई पर मां के स्नेह की सीमा तक कोई नहीं पहुंच सकता। कोई भी नहीं।

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